कर्म का रहस्य: निष्काम कर्म

"एक किसान खेत में हल चला रहा है, सूरज की रोशनी खेत को सुनहरा बना रही है।"
"कर्म करते रहो, फल अपने समय पर अवश्य मिलता है।"


परिचय

जीवन में हम सब कर्म करते हैं, परंतु हमारा ध्यान अधिकतर उसके परिणामों पर होता है। हम सोचते हैं कि मेहनत का फल कब मिलेगा, कितना मिलेगा और कैसा मिलेगा। इसी फल की चिंता हमें दुख, द्वंद्व और परेशानियों में बाँध देती है। जबकि सच्चाई यह है कि फल तो केवल कर्म का परिणाम है, परंतु हमारे हाथ में केवल कर्म है। यही गीता और बुद्ध दोनों का संदेश है — “कर्म करो, फल की चिंता मत करो।”

कर्म और फल का संबंध

ब्रह्मांड का अटल नियम है कि कोई भी कर्म व्यर्थ नहीं जाता। हर कर्म का फल हमें अवश्य मिलता है — चाहे तुरंत, चाहे कुछ समय बाद। कर्म नष्ट नहीं हो सकता, क्योंकि वह हमारी चेतना और ऊर्जा में बसा रहता है। जब सही समय आता है, तब उसका फल भी सामने आता है।

पढीए;

"एक साधु नदी किनारे ध्यानमग्न बैठा है, चेहरे पर गहरी शांति झलक रही है।"
"जब कर्म बिना अपेक्षा के किया जाता है, तब मन स्वतः मुक्त हो जाता है।"


भावना ही फल बन जाती है

कर्म केवल बाहरी क्रिया नहीं है, बल्कि उसमें हमारी भावना और इरादे भी शामिल होते हैं।

यदि हम किसी को मदद करते हैं, परंतु दिखावे के लिए, तो उसका फल भी वैसा ही होगा — बाहरी प्रशंसा पर सीमित।

यदि हम निस्वार्थ भाव से देते हैं, बिना किसी अपेक्षा के, तो उसका फल गहरा संतोष और आंतरिक शांति के रूप में मिलता है।

यानी कर्म का असली बीज हमारा इरादा (Intention) होता है। जैसा बीज होगा, वैसा ही फल उगेगा।

निस्वार्थ कर्म की शक्ति

जब हम कर्म करते हैं और मन में पाने या खोने की भावना नहीं रखते, तब हम उस कर्म से मुक्त हो जाते हैं।

न पाने की इच्छा, न खोने का डर — यही निस्वार्थ कर्म है।

ऐसा करने पर न हम फल के बंधन में बँधते हैं, न उसकी चिंता में।

हमारे कर्म स्वयं में ही आनंद का स्रोत बन जाते हैं।

"खुले आसमान के नीचे एक व्यक्ति हाथ फैलाकर खड़ा है, जैसे ब्रह्मांड को समर्पण कर रहा हो।"
"कर्ताभाव से मुक्त होकर ही सच्ची स्वतंत्रता पाई जा सकती है।"


"कर्ताभाव" से मुक्ति

सबसे गहरी समझ यही है कि वास्तव में हम कुछ नहीं कर रहे।

श्वास लेना, धड़कन चलना, विचार आना — यह सब स्वतः हो रहा है।

जब हम यह मान लेते हैं कि “मैं ही करता हूँ”, तभी अहंकार और बंधन शुरू होते हैं।

पर जब समझते हैं कि “मैं कर्म का कर्ता नहीं, केवल माध्यम हूँ”, तब हम कर्म के बंधन से मुक्त होकर मुक्ति के द्वार खोल देते हैं।

पढीए;

निष्कर्ष

कर्म जीवन का आधार है, परंतु फल केवल उसका परिणाम। यदि हम फल पर केंद्रित रहेंगे तो कभी संतुष्ट नहीं होंगे। लेकिन यदि हम कर्म को ही पूजा मान लें, निस्वार्थ भाव से उसे करें और कर्ताभाव को त्याग दें — तभी सच्ची स्वतंत्रता मिलेगी।

कर्म ही साधना है, और निस्वार्थ भाव ही मुक्ति का मार्ग।

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