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जब तूफान बाहर हो, लेकिन भीतर शांति — यही है साक्षी दृष्टि।" |
हम हमेशा कुछ ना कुछ तो देखते ही है पर देखते क्या हैं, सोचा है कभी। मतलब हमारा देखना, देखना है या कोई भ्रम।
अगर सही से देखें तो.....
हमारी देखने की दो अवस्थाएँ होती हैं –
एक वो जो हमारी आँखें देखती हैं,
और दूसरी वो, जो हमारा मन रचता है। पर इन दोनों के देखने में उतना ही अंतर है, जितना कि हकीकत और कल्पना में होता है। पर ऐसा क्यु? चलो देखें .....
इसे पढीए:
🔍 आँखों का देखना – वास्तविकता
हमारी आंखें वही देखती है जो हमारे सामने होता... याने के वर्तमान.. हम वर्तमान को देखते हैं।
कोई वस्तु, दृश्य, चेहरा, वृक्ष – ये सब हमारे सामने होते हैं।
पर यह देखना अक्सर क्षणिक होता है। क्युकी हम देखते हैं, और फिर भूल भी जाते हैं।
क्योंकि मन का तुरंत किसी दुसरे दृश्य पर ध्यान खिच लेना।
🧠 मन का देखना – एक कल्पना
मन कभी भी एक जगह स्थिर नहीं रहता, उसे घुमना पसंद है। वह अभी यहां तो अगले पल दुसरी जगह होता है। वह कभी किसी चीज़ को जैसा है, वैसा नहीं देखता। हमेशा उस चीज को देखने के लिए अपने अनुभवों, बीते पलों और धारणाओं उपयोग करता है।
उदाहरण के लिए:
हम आँखो से एक वृक्ष को देखते हैं, वह यथार्थ होता है।
लेकिन हमारा मन उसी वक्त उस वृक्ष से जुड़ी पुरानी यादें,
भावनाएँ, या कहानियाँ जोड़कर
एक नया, काल्पनिक "वृक्ष" बना देता है। जो बस हमारी अवधारणा होती है।
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⚠️ यहीं से हमारे भ्रम की शुरुआत होती है
बस यही कल्पना एक चित्र के रूप में उभर आती है और हमारा मन इस चित्रों को ही सत्य मानने लगता हैं और फीर भावनाये उत्पन्न होनी शुरू हो जाती है और फिर हम उस भ्रम में जीने लग जाते हैं, जो मन की रचना है।
हम वस्तु को नहीं बल्कि अपनी धारणा, डर, अपेक्षा या अतीत की छाया को देखते हैं।
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"भावनाओं को देखना, खुद में खोना नहीं — यह है देखने का सही तरीका।" |
🧘♀️ साक्षी दृष्टि – यथार्थ भाव
साक्षी दृष्टि का अर्थ ही है बिना किसी निर्णय, बिना किसी धारणा, बिना किसी तुलना के केवल देखना।
न कोई ‘अच्छा’ या न ‘बुरा’ न कोई तुलना न कोई पूर्वाग्रह
बस जो है, जैसा है उसे वैसा ही देखना।
यही वह दृष्टि है जो ध्यान की नींव डालती है।
यही हमें भ्रम से मुक्ति और शांति की ओर ले जाती है।
🌿 जागरूकता की शुरुआत
जब भ्रम टुटता है तो मन की पकड़ से मुक्त होकर हम देखना शुरू करते हैं, तब हमें दुनिया नहीं, बल्कि सत्य दिखता है।
और यही जागरूकता का आरंभ है। फिर
यही जागरूकता मन को साधती ही नहीं, बल्कि उसके पार जाना सिखाती है।
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"ऊँचाई से देखने पर सब कुछ चलता रहता है — हम केवल साक्षी होते हैं।" |
🧭 निष्कर्ष:
मन का देखना हमें भ्रमित करता है।
साक्षी का देखना हमें मुक्त करता है।
और यही अंतर एक सामान्य
जीवन और जागरूक जीवन के बीच की रेखा है।
👉 इसे अधिक गहराई से समझने के लिए पढ़ें:
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