क्या हम सच में देखते हैं?

“एक आदमी शहर के बीच खड़ा है और सामने की दुनिया को देख रहा है, पर उसके पीछे की असली दुनिया धुंधली और अलग दिख रही है — जैसे वह वास्तविकता को गलत समझ रहा हो।”
“हम दुनिया को वैसे नहीं देखते जैसी वह है, बल्कि वैसे जैसे हम हैं।”

हम अपनी दृष्टि से इस संसार को देख रहे हैं।

जो भी हमारे सामने दिख रहा है, हम उसे ही सच मान रहे हैं।

पर क्या वाक़ई में सब कुछ सच है? जो दिखता है वही सच है या फिर कुछ और।


    दरअसल, हम वही देखते हैं जो हमारे मन में होता है।

हमारी धारणाएँ, हमारी मान्यताएँ, हमारी सोच हमारे मन‌ की उपज है और वही हमारी दृष्टि बनती हैं।

हम सामने वही देखते हैं जो हमारे मन में होता है —

जो हमारी सोच में है, जो हमारी धारणाएँ हैं, जिन पर हम चलते हैं।

इसलिए वास्तव में हम वह कभी देख ही नहीं पाते जो हमें देखना चाहिए।

क्योंकि देखने के लिए केवल आँखें ही नहीं,

सही दृष्टि भी होनी चाहिए —

और क्या वैसी दृष्टि हमारे पास है?

एक इंसान अपना सम्पूर्ण जीवन

उसी आधार पर जीता है जो उसने सीखा है,

चाहे वह सही हो या गलत।

वह उसी को सच मानता है, उसी को अपनाता है,

और दूसरे मत को वह स्वीकार नहीं करता।

हम उसे रूढ़िवादी कहते हैं,

क्योंकि उसका जीवन उन्हीं रूढ़ियों में जकड़ा रहता है।

वह उन्हें तोड़ नहीं पाता — या शायद तोड़ना ही नहीं चाहता।

यही उसका नज़रिया होता है,

जो वह अपने परिवार और समाज पर भी थोपने की कोशिश करता है।

उसकी नज़र में वही सब सही है

जो उसने देखा या समझा है।


वैसे तो हम सभी लोग अपनी-अपनी नज़र से ही‌ दुनिया को देखते हैं।

कोई भौतिकवादी नज़र से देखता है,

तो कोई आध्यात्मिक दृष्टि से।

बस, हम देखते रहते हैं…

सबके अपने-अपने तर्क हैं, अपने-अपने दृष्टिकोण हैं,

और उसी आधार पर दुनिया उन्हें दिखाई देती है।

मतलब साफ़ है —

दुनिया तो जैसी है, वैसी ही स्थिर है।

वह कभी नहीं कहती कि “मैं ऐसी हूँ”।

बस, देखने वाला अपनी-अपनी नज़र से उसे देखता है और समझता है।

पर सवाल यह है —

दुनिया को किसने समझा है?

प्रकृति को किसने जाना?

उसके गूढ़ रहस्य किसे पता हैं?

क्योंकि प्रकृति तो अपना रहस्य

कभी किसी को नहीं बताती।

तुम्हें जैसी लगे, तुम वैसे मान लो —

वह कभी नहीं कहेगी कि “मैं ऐसी नहीं हूँ” या “तुम गलत सोच रहे हो।”

वह कभी हमसे बात नहीं करती,

बस चुपचाप अपने मार्ग पर चलती रहती है —

बिना कुछ कहे, बिना कोई शोर किए।

“शांत घाटी में बहती नदी, पेड़ों पर हल्की धूप, पहाड़ों के पीछे सूरज की किरणें — प्रकृति अपने रास्ते पर बिना किसी शोर या जल्दी के चल रही है।”
“वह बस अपना कार्य करती जाती है — शांति से, बिना शिकायत के।”

यह दुनिया कहो, सृष्टि या प्रकृति कहो—

वह कुछ देखती नहीं, कुछ कहती नहीं,

बस अपना काम करती रहती है।

उसका अपना एक रास्ता है,

और वह उसी पर चलती है —

ना इधर-उधर होती है,

ना रास्ता बदलती है,

ना भटकती है।

वह अपने कार्य को पूर्ण करती रहती है

बिना किसी शोर के, बिल्कुल शांत।

क्योंकि उसके लिए उसका काम ही धर्म है।

उसे फर्क नहीं पड़ता कि कौन क्या कर रहा है।

ना कोई जल्दबाज़ी, ना कोई भागदौड़ —

फिर भी उसके सारे कार्य

समय पर पूरे हो जाते हैं।


पर हम इंसान बिल्कुल विपरीत है।

हालाँकि हम भी इस सृष्टि काही हिस्सा है,

फिर भी हम अपनी ऊर्जा व्यर्थ में गंवा देते है।

हम कभी शांत नहीं रहते,

हर समय कुछ न कुछ देखते है, बोलते रहते है,

टिप्पणी करते रहते है —

हर चीज़ पर, सिवाय खुद के।

हम दूसरों में दोष और गुण खोजते है,

और अपनी सारी ऊर्जा दूसरों पर खर्च कर देते है।

इसलिए हमे इस दुनिया में वही सब दिखता रहता है

जो हमारे मन में चल रहा होता है —

और हम उसी में उलझे रहते है।

इसी कारण हम अपने कार्य

समय पर पूरे नहीं कर पाते,

और जीवनभर दुख झेलते रहते है।

पर जैसे ही हम अपने देखने का नज़रिया बदलते है,

“एक व्यक्ति भीड़ में खड़ा लगातार बोल रहा है, जबकि दूसरी ओर एक व्यक्ति नदी किनारे डूबते सूरज को शांति से देख रहा है।”
“सच्ची दृष्टि शब्दों में नहीं, मौन में मिलती है।”

परिवर्तन की शुरुआत होती है। सब कुछ बदलना शुरू हो जाता है और परिवर्तन इस सृष्टि का सबसे बड़ा नियम है, जो सृष्टि को आगे बढ़ाता है। जब आप सोचते हो की बदलना है तो हर तरफ बदलाव दिखना शुरू हो जायेगा, पुरी सृष्टि बदलनी शुरू होती है

यही कारण है कि बुद्ध कहा था —

“आप बस पहला कदम उठाइए,

फिर बदलाव अपने आप शुरू हो जाएगा।”


✨ लेख का सार:

हम जो देखते हैं, वह संसार

 नहीं —

बल्कि हमारी अपनी दृष्टि का प्रतिबिंब है।

दृष्टि बदलो, तो संसार भी बदल जाता है।

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