वासना का वृक्ष (एक आत्मबोध की कहानी)

    हम सभी की ज़िंदगी में कुछ ऐसे पल आते हैं जब सबकुछ होते हुए भी कुछ अधूरा सा लगता है। बाहर से जीवन सामान्य दिखता है, पर भीतर एक बेचैनी, एक अजीब-सी खालीपन घर कर जाती है। क्या आपने कभी सोचा है कि ये परेशानी कहाँ से आती है?

क्या ये दुनिया हमें थका रही है, या हम खुद अपने जाल में फँसे हुए हैं?

"एक युवक रात को बिस्तर पर लेटा है, आँखें खुली हैं और चेहरा तनाव से भरा है।
उसके मन में भी तूफ़ान चल रहा हो।"


आज की ये कहानी एक साधारण से युवक दीनू की है, जो ऐसी ही उलझनों में फँसा हुआ था। लेकिन उसकी मुलाकात एक ऐसे साधु से होती है जो उसे आईना दिखाता है – और फिर दीनू की ज़िंदगी बदल जाती है।

गाँव के एक कोने में एक सीधा-सादा, समझदार लड़का रहता था — नाम था दीनू। उम्र कोई 25-26 रही होगी। पढ़ा-लिखा था, व्यवहार से शांत, काम में कुशल। परिवार में माता-पिता, भाई-बहन सब थे। ज़िंदगी में कोई बहुत बड़ी समस्या नहीं थी। नौकरी भी ठीक-ठाक थी और आमदनी से उसका खर्च भी आराम से चल रहा था। शादी अभी नहीं हुई थी, पर कोई जल्दी भी नहीं थी। कुल मिलाकर एक आम इंसान जैसी सामान्य ज़िंदगी थी — और उस ज़िंदगी से दीनू संतुष्ट भी था... कम से कम उसे ऐसा लगता था।


लेकिन धीरे-धीरे कुछ बदलने लगा।

पहले छोटी-छोटी बातें उसे परेशान करने लगीं। अचानक उसका मन खाली-सा महसूस करने लगा। वह बात-बात पर सोच में डूब जाता। कभी अनजाना डर, कभी चिंता, कभी कोई वजह न होते हुए भी भारीपन। बाहर से सब कुछ वैसा ही था, लेकिन भीतर... एक तूफ़ान था, जो हर रोज़ तेज़ होता जा रहा था।


अब वो दोस्तों से कटने लगा था। किसी से बात करने का मन नहीं करता। माँ पूछती — "बेटा, क्या हुआ?" तो वो बस मुस्कुरा देता: "कुछ नहीं अम्मा, बस थक गया हूँ।"


पर असल में, वह थक गया था... खुद से।


रात को लेटता तो नींद गायब हो जाती। दिमाग में अजीब-अजीब ख़याल घूमते। कभी जिंदगी बेमतलब लगती, कभी मौत भी आसान विकल्प लगने लगती। जैसे कोई अदृश्य ज़ंजीरें थीं, जो उसे बाँध रहीं थीं।


एक दिन सब बदल गया...


गाँव में एक साधु आया — उम्र का अंदाज़ नहीं था, चेहरा शांत, आँखों में गहराई और चाल में स्थिरता। कहते थे वो जो भी सवाल पूछो, उसका जवाब दे देता है — वो भी सीधे दिल को छू जाने वाला।


दीनू ने सुना तो कुछ देर सोचा — "क्या मैं भी जा सकता हूँ? क्या मुझे मेरा जवाब मिल सकता है?"

कुछ तो था उस दिन — वो चल पड़ा साधु की ओर।


साधु एक पीपल के नीचे बैठे थे। दीनू उनके पास गया, हाथ जोड़कर बैठ गया और कहा,

"महाराज... मैं नहीं जानता मुझसे क्या गलती हुई है। मेरे पास सब कुछ है, पर फिर भी लगता है जैसे कुछ नहीं है। मैं हर वक्त परेशान रहता हूँ। डरता हूँ, थक गया हूँ… कभी-कभी मर जाने का भी मन करता है। क्या मैं कहीं फँस गया हूँ?"

साधु ने उसकी ओर देखा — गहरी नज़र से, बिना कोई सवाल किए — और बोले:


"बेटा, तुम कहीं फँसे नहीं हो... तुमने खुद को फँसा लिया है।"


दीनू चौंक गया।


"मैंने? लेकिन कैसे महाराज? मैं तो कुछ समझ ही नहीं पा रहा..."


साधु मुस्कराए और बोले:


"क्या तुम सच में जानना चाहते हो कि क्यों दुखी हो?"


"हाँ, महाराज।"


साधु ने एक गहरी साँस ली और बोले:


"तुम्हारे भीतर जो वासनाएँ हैं, तुम्हारे मन में जो इच्छाएँ बार-बार पनप रही हैं — वही तुम्हारे दुख की जड़ हैं।"


दीनू कुछ समझा नहीं।

"जमीन पर एक छोटा बीज अंकुरित होकर एक विशाल पेड़ में बदल गया है। पेड़ की बड़ी जड़ें और फैली शाखाएँ पूरे दृश्य को घेर चुकी हैं, जिससे आसपास के छोटे पौधे दब गए हैं।
प्रतीकात्मक रूप से दिखा रहा है कि इच्छाएँ इतनी बड़ी हो गईं कि नई भावनाएँ पनप नहीं पा रहीं।"


साधु बोले:


"आओ, मैं तुम्हें एक उदाहरण देता हूँ।"


"मान लो एक बीज ज़मीन में गिरता है।

पहला काम वह क्या करता है?

वह अपनी जड़ें फैलाना शुरू करता है।

धीरे-धीरे वह ज़मीन से पोषण खींचता है, और फिर एक दिन वह बीज एक विशाल वृक्ष बन जाता है।


अब सोचो, अगर वो वृक्ष इतना बड़ा हो जाए कि उसके नीचे कोई और बीज उग ही न सके — तो क्या होगा?"


दीनू ध्यान से सुन रहा था।


साधु बोले:


**"तुम्हारा मन वही ज़मीन है। और तुम्हारी इच्छाएँ — तुम्हारी वासनाएँ — वो बीज हैं।

जब तुम किसी वासना को बार-बार सोचते हो, महसूस करते हो, उसे ही दोहराते हो —

तो तुम उसे पानी दे रहे हो, खाद दे रहे हो।

धीरे-धीरे वह वृक्ष बन जाता है — और इतना बड़ा हो जाता है कि अब उसमें कोई नया विचार, कोई नई भावना, कोई शांति का अंकुर भी पनप नहीं सकता।


फिर तुम उसी वृक्ष के नीचे बैठे रोते हो — कहते हो कि मैं परेशान हूँ।

लेकिन असल में उस वृक्ष को तुमने ही उगाया है।"**


दीनू की साँस थम गई।


"पर महाराज, मैं इन वासनाओं को छोड़ कैसे सकता हूँ? ये तो अपने-आप आती हैं।"


साधु बोले:


"बिलकुल आती हैं। पर तुम्हें उन्हें सींचना नहीं है।

बस उन्हें आते देखो — और जाने दो।

हर भावना, हर इच्छा एक बादल की तरह है — वह रुकेगी नहीं अगर तुम उसे रोकोगे नहीं।

पर अगर तुम उसे पकड़ लोगे, उसे दोहराने लगोगे — तो वही बादल अब तूफ़ान बन जाएगा।


इसलिए बेटा, सीखो छोड़ना — नहीं तो जो तुम्हें अच्छा लगता है, वही एक दिन तुम्हें तोड़ देगा।"


"एक साधु और एक युवक पीपल के पेड़ के नीचे बैठे हैं। साधु आकाश की ओर इशारा कर रहे हैं जहाँ सफेद बादल तैर रहे हैं।
विचार और इच्छा को बादलों की तरह आने-जाने देना है। वातावरण शांति और अध्यात्म से भरा है।"



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दीनू की आँखें खुलीं...


वो चुप था… पर भीतर एक तूफ़ान थम चुका था।

उसने पहली बार अपने भीतर झाँका — और देखा कि वाकई, कई ऐसी इच्छाएँ, चाहतें, आदतें, विचार — जिन्हें वो ज़रूरी समझता था — वही अब उसे खा रहे थे।


दुख बाहर नहीं था।

दुख की जड़ें उसके भीतर थीं — और उन पर पानी डालने वाला वो खुद था।



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हम सभी के भीतर इच्छाओं का एक जंगल है।

कोई चाहत नहीं छोड़ना चाहता — क्योंकि हमें लगता है वही तो जीने का ज़रिया है।

पर क्या हर चाहत सही है?

क्या हर वासना हमें सुख देती है — या सिर्फ कुछ पलों का आनंद, और फिर कई दिनों की बेचैनी?


शांति पाना है तो मन की ज़मीन को साफ़ करना होगा।

कुछ पेड़ काटने होंगे — कुछ बीज बोने से पहले पहचानने होंगे।


दीनू की तरह अगर हम भी अपनी जड़ों को देखें, तो शायद हम जान पाएँ —

हम दुख से नहीं फँसे हैं... हम बस खुद को पकड़कर बैठे हैं।

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